9/11 की 20वीं बरसी को जिहादी अपनी दोहरी जीत के तौर पर मना रहे हैं. यह मौका तालिबान की सत्ता में वापसी का भी है.
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी को जिहाद के लिए एक तख़्तापलट और देश से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के तौर पर देखा जा रहा है.
20 साल पहले अमेरिका में विमानों को अगवा किए जाने के लिए ज़िम्मेदार आतंकी संगठन अल-क़ायदा ने तालिबान को उसकी ‘ऐतिहासिक जीत’ के लिए आगे बढ़कर बधाई दी है.
ये सब कुछ ऐसे वक़्त में हो रहा है जब पश्चिमी ताक़तें मुस्लिम बहुल हिंसा प्रभावित देशों से अपनी सेनाओं की संख्या कम कर रहे हैं.
जिहादी संगठन इस क़दम पर नज़रे रखे हुए हैं.
9/11 हमलों के 20 साल बाद भी जिहादी ख़तरा बरकरार है. कथित इस्लामिक स्टेट (आईएस) जैसे समूह और उनकी कट्टर जिहादी विचारधारा की वजह से ये ख़तरा और भी जटिल हो गया है.
इस लेख में मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में जिहाद की स्थिति, ख़ासतौर पर अल-क़ायदा समूह की स्थिति का विश्लेषण किया गया है.
‘अल्लाह की ओर से पवित्र संदेश’
इस्लामिक स्टेट को छोड़कर दूसरे जिहादी समूह तालिबान के सत्ता में लौटने को ‘अल्लाह की तरफ़ से पवित्र संदेश’ के रूप में देख रहे हैं.
वो इसे ऐसे दौर की शुरुआत के रूप में देख रहे हैं जिसमें पश्चिमी देश दूसरे देशों के संघर्षों में अपनी संलिप्तता से थक गए हैं और कुछ मामलों में वो जिहादी ताक़तों के आगे झुक रहे हैं या फिर कमज़ोर स्थानीय सरकारों को घरेलू हिंसा से निबटने के लिए अकेला छोड़ रहे हैं.
ये समूह अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका और नेटो सैनिकों की वापसी को निरंतर ‘जिहाद के मॉडल की जीत’ और ‘अमेरिका की हार’ के तौर पर देख रहे हैं. इसे ‘पश्चिमी सैन्य शक्ति और सम्मान की पराजय’ के तौर पर भी देखा जा रहा है.
जून में फ्रांस ने माली में अपनी सैन्य मौजूदगी को कम करने की घोषणा की थी. फ्रांस यहां कई सालों से जिहादी समूहों के ख़िलाफ़ लड़ रहा है.
पश्चिमी अफ़्रीका के इस इलाक़े में अल-क़ायदा और आईएस दोनों ही सक्रिय हैं. वहीं, अमेरिका ने इराक़ और सीरिया में अपने सैनिकों की संख्या कम की है.
जनवरी में अमेरिका सोमालिया से भी बाहर निकल गया है. जिहादी इन घटनाक्रमों को नए मौकों के तौर पर देख रहे हैं.
कोविड-19 महामारी और अमेरिका में नस्लभेद के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों और राजनीतिक ध्रुवीकरण को जिहादी अपने नज़रिए से देख रहे हैं.
उन्हें लग रहा है कि अमेरिका अपनी घरेलू समस्याओं और राजनीति में इतना फंस जाएगा कि वो जिहाद प्रभावित संघर्ष क्षेत्रों के बारे में चिंता नहीं कर पाएगा.
इन घटनाक्रमों पर टिप्पणी करते हुए अल-क़ायदा ने साल 2020 में अपने समर्थकों से कहा था कि वो आने वाले समय के लिए तैयारियां शुरू कर दें.
अल-क़ायदा का प्रतिद्वंदी संगठन इस्लामिक स्टेट भी वार करने के लिए मौके की तलाश में है. दोनों ही समूह क्षेत्र और प्रभाव को लेकर एक दूसरे से प्रतिद्वंदिता करते रहेंगे. अभी दोनों संगठनों के बीच सहयोग का कोई संकेत नहीं मिला है.
पश्चिमी हवाई ताक़त, ख़ासतौर पर अमेरिकी ड्रोन जिहादी अस्तित्व के लिए ख़तरा ज़रूर हैं. लेकिन इन समूहों को लगता है कि यदि अमेरिका उन पर हवाई हमले नहीं करेगा तो वो स्थानीय बलों को आसानी से हरा सकते हैं.
तालिबान का मॉडल- जिहादी तख़्तापलट का मौका
अल क़ायदा और दूसरे जिहादी समूह तालिबान के मॉडल पर जश्न मना रहे हैं और दूसरी जगहों पर इसका अनुकरण किए जाने जाने की बात कर रहे हैं. ‘प्रेरणादायक’ वो शब्द है जो तालिबान के लिए बार-बार इस्तेमाल किया जा रहा है.
सोमालिया में अल क़ायदा से जुड़े संगठन अल शबाब जिहाद को ख़त्म करने के अभियानों के बावजूद ना सिर्फ़ बचा रहा है बल्कि हाल के सालों में मज़बूत भी हुआ है.
वहीं साहेल के संगठन जेएनआईएम ने पिछले साल क़ैदियों की अदला-बदली के लिए एक लुभावना समझौता किया था और माली की सरकार से बात करने की इच्छा भी जाहिर की थी. ये संगठन अब तालिबान जैसी ही बढ़त हासिल करना चाहेंगे.
उत्तरी सीरिया में सक्रिय जिहादी संगठन हयात तहरीर अल शाम (एचटीएस) को भी एक छोटा तालिबान माना जा सकता है.
ये संगठन अपनी जिहादी पहचान के साथ-साथ सत्ता हासिल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय और वैश्विक शक्तियों से मान्यता हासिल करने की कोशिश भी कर रहा है.
लेकिन तालिबान के मॉडल के लिए एक ऐसे अभियान की ज़रूरत होती है जो भारी चोट पहुंचाए और लंबा ‘जिहाद’ करे.
इसमें कई साल भी लग सकते हैं ताकि स्थानीय सरकार या उसके अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों को जिहादियों से बात करने और उन्हें रियायतें देने के लिए मजबूर किया जा सके. या जो जिहादियों को इतना मज़बूत कर दें कि वो जरदस्ती सत्ता में दाख़िल हो जाएं.
यहां मुख्य बात ये है कि तालिाबन के नक्शे-क़दम पर चलने के लिए लचीलापन और व्यवहारवाद की ज़रूरत होगी जो कट्टरवादी नीतियों के विरुद्ध हो सकता है.तालिबान को मुबारकबाद देते हुए अल-क़ायदा के संदेश
इसके विपरीत एक मॉडल है जिसका प्रतिनिधित्व आईएस करता है. आईएस लड़ाकों, नागरिकों, मुश्किल और आसान निशानों पर जान लेने के इरादे से हमले करता है.
जिहादी अब ये मानने लगे हैं कि इस्लामिक स्टेट का ये मॉडल अल्पकालिक जीत देता है लेकिन दीर्घकालिक रूप से व्यवहारिक नहीं है.
मगर साथ ही जिहादी लचीलेपन और व्यावहारिकता, जिसे कई बार इस्लामी सिद्धांत ‘सियासह शरिया’ या इस्लामी क़ानून के आधार पर महान कार्य के लिए व्यावहारिकता का सिद्धांत भी कहा जाता है- एक मुश्किल विषय है.
यह किसी जिहादी समूह को बड़े जिहादी समुदाय में ग़ैर भरोसेमंद भी बना सकता है, भले ही इस सिद्धांत से राजनीतिक फ़ायदा मिलता हो.
इसका एक उदाहरण हयात अल शाम (एचटीएस) है जिसने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मान्यता हासिल करने की कोशिशों में जिहादी समूहों का विश्वास खो दिया है.
मई में अल क़ायदा नेताओं को भी अपने कुछ कट्टर समर्थकों की आलोचना का सामना करना पड़ा. ये बिल्कुल अलग किस्म का मामला था.
दरअसल अल-क़ायदा ने फ़लस्तीनी समूह हमास के लिए संवेदना संदेश भेजे थे. हमास राजनेताओं से संपर्क रखता है और लोकतांत्रिक तरीकों को भी अपनाता है जिसकी वजह से अधिकतर अंतरराष्ट्रीय जिहादी समूह उसकी आलोचना करते हैं.
जिहादी संगठन भले ही तालिबान की तारीफ़ कर रहे हैं लेकिन उनका सबसे ज़्यादा ध्यान इस बात पर ही है कि तालिबान प्रशासन के मामले में शरिया को कितनी सख़्ती से लागू कर पाते हैं.
यदि स्थानीय लोगों का और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए तालिबान शरिया के पालन में कुछ लचीलापन दिखाते हैं तो ‘जिहादी गिद्ध’ इस पर शांत नहीं रहेंगे.
अल क़ायदा के कुछ समर्थक तो दबी ज़बान में तालिबान की कुछ व्यवहारिक नीतियों की आलोचना भी करने लगे हैं.
उदाहरण के तौर पर तालिबान ने धार्मिक अल्पसंख्यकों और पड़ोसी देशों का भरोसा जीतने की जो कोशिश की है वो कट्टर जिहादी को बहुत स्वीकार्य नहीं है.
इसी बीच इस्लामिक स्टेट तालिबान के इस लचीलेपन का इस्तेमाल तालिबान के जिहादी समूह के तौर पर विश्वस्नीयता को खारिज करने के लिए कर रहा है ताकि वह तालिबान के कट्टर लड़ाकों को अपनी तरफ़ आकर्षित कर सके.
आज के दौर में अल-क़ायदा का ख़तरा
हाल के सालों में अल-क़ायदा के अभियानों और नेताओं को एक के बाद एक झटके लगे हैं.
यही वजह है कि अल-क़ायदा की कई शाखाएं बयान जारी करने और ऑनलाइन प्रोपागेंडा तक ही सिमट कर रह गई हैं.
जैसे-अफ़्रीका में अल-क़ायदा इन इस्लामिक मग़रिब (एक्यूआईएम), यमन में अल-क़ायदा इन अरैबिक पेनिनसुला (एक्यूएपी), सीरिया में हुर्रास-अल-दीन और दक्षिण एशिया में अल-क़ायदा इन इंडियन सब-कांटिनेंट (एक्यूआईएस) अब निचले दर्जे की सैन्य गतिविधियां ही कर पा रहे हैं.
पिछले साल से अल-क़ायदा नेता अयमान अल जवाहिरी की मौत को लेकर जो अफ़वाहें हैं अल-क़ायदा ठोस रूप से उनका खंडन भी नहीं कर सका है.
माना जाता है कि या तो जवाहिरी की प्राकृतिक कारणों से मौत हो गई है या फिर वो काम करने लायक नहीं है. जवाहिरी की मौत की अपुष्ट ख़बरों के बाद से मिस्र मूल के इस अल-क़ायदा नेता ने कोई वीडियो बयान जारी नहीं किया है.
हालांकि अल-क़ायदा भले ही कमज़ोर है लेकिन ये नहीं कहा जा सकता है कि वो अब ख़तरनाक नहीं है. अल-क़ायदा अभी भी गंभीर जिहादी ख़तरा है.
अल क़ायदा अफ़्रीका में अपने दो ख़तरनाक सहयोगी संगठनों माली में जेएनआईएम और सोमालिया में अल-शबाब की वजह आज भी बड़ा ख़तरा है.
अल क़ायदा अभी भी जिहादी हमलावरों को पश्चिमी लोगों और यहूदियों पर लोन वुल्फ अटैक (अकेले अपने दम पर हमला) करने के लिए प्रेरित कर रहा है और अपना एजेंडा चला रहा है.
अमेरिका अब भी अल-क़ायदा का दुश्मन नंबर एक है लेकिन ऐसा लग रहा है कि अब फ्रांस अल-क़ायदा का दूसरा सबसे बड़ा दुश्मन है.
पिछले साल सितंबर के बाद से अल क़ायदा और उसके सहयोगी संगठनों ने फ्रांस और उसके नागरिकों के ख़िलाफ़ संगठित अभियान चलाया है.
ये फ्रांस की विवादित पत्रिका शार्ली हेब्दो में इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद के विवादित कार्टून फिर से प्रकाशित किए जाने के बाद से शुरू हुआ है.
फ्रांस में 2020 के अंतिम महीनों के बाद से इन कार्टून से जुड़े कई हमले हुए हैं.
हालांकि ना ही अल-क़ायदा और ना ही आईएस ने इनकी ज़िम्मेदारी ली है. लेकिन दोनों ही संगठनों ने अपने संदेशों में इन हमलों की तारीफ़ की और बाक़ी लोगों से भी ऐसे ही हमले करने के लिए कहा.
16 अक्तूबर 2020 को पेरिस में शिक्षक सेमुअल पेटी का सिर काटने वाले हमलावर अब्दुल्लाह अंजोरोफ़ की अल क़ायदा के समूहों ने ख़ूब प्रसंशा की थी.