लेखक:- एस. वी. सिंह “प्रहरी”
मानव जन्म की श्रेष्ठता के बारे में श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेख है कि
‘सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्ताया, वृक्षान् शरीसृपपशून् खगदशंमत्स्यान । तैस्तैर अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय, ब्रम्हावलोकधिषणं मुदमाप देवः ।’
अर्थात् विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्ति हुई और जिसमें वृक्ष, सर्प, पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े एवं मछलियां आदि अनेकों रूपों का सृजन हुआ परन्तु उसमें चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई तत्पश्चात् मनुष्य का जन्म हुआ जो चेतना के मूल तत्व ब्रह्म से साक्षात्कार करने में समर्थ हुआ।
मानव का शरीर पंचमहाभूतों अर्थात् पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि एवं जल से निर्मित एवं संचालित होता है, वैसे तो बह्माण्ड में बहुत से भूतों (तत्वों) की उपस्थिति हैं, परन्तु प्रकृति में उपलब्ध ये पांच महाभूत अपार शक्तिशाली है इसीलिए इन्हें भूत के स्थान पर महाभूत कहा जाता है इन्हीं के संतुलन का पर्याय प्रकृति है।
भगवान में भी इन्हीं पंचमहाभूतों का समावेश है।
‘भगवान’ जिन चार शब्दों से बना है उसमें भ- भूमि अर्थात् पृथ्वी, ग – गगन अर्थात् आकाश, वा वायु अर्थात् हवा, अ-अग्नि अर्थात आग एवं न नीर अर्थात जल।
मानव शरीर के मस्तिष्क में भगवान शिव के अंश के रूप में स्थित चेतना अर्थात प्राणशक्ति का जब माँ आदिशक्ति रूपी प्रकृति जो कि इन पंचमहाभूतों की संतुलित उर्जा का स्वरूप है, से मिलन होता है (इसी चेतना एवं प्रकृति के मिलन को ही पुरूष एवं प्रकृति का मिलन कहते है यही परम्पिता शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप है) तो चेतना (प्राणशक्ति) में विद्युत उत्पन्न होती है इसी से उत्पन्न विद्युत मस्तिष्क में प्रवाहित होकर मस्तिष्क के कई अरब कोषों को सक्रिय एवं नियमित करती है। इसी ऊर्जा शक्ति से शरीर के समस्त अंगों एवं जीवन का संचालन होता है। पंचमहाभूतों का स्वरूप, गुण तथा शरीर संचालन में इनकी भूमिका एवं उपयोगिता का विश्लेषण प्रस्तुत है।
पृथ्वी तत्व : शरीर में 12 प्रतिशत पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व है, इसका स्वामी ग्रह बुध है, पृथ्वी तत्व की प्रकृति भार तथा कारक तत्व गंध है तथा नासिका यानी नाक नामक ज्ञानेन्द्रिय से गंध सुगंध का अनुभव होता है, इसके अधिकार क्षेत्र में हड्डी, मांस मज्जा एव नाखून आदि आते है इसके अर्न्तगत वात, पित्त एवं कफ तीनो धातुएं आती है, अर्थात पृथ्वी तत्व के असंतुलन से वात, पित्त एवं कफ विकार उत्पन्न होते है जिससे शरीर अस्वस्थ होता है।
जल तत्व – शरीर में 72 प्रतिशत जल तत्व का प्रतिनिधित्व होता है, जल तत्व के स्वामी चन्द्र एवं शुक्र दोनों होते है, जल
की प्रकृति तरलता, कारक तत्व स्वाद यानी रस है, जीभनामक ज्ञानेन्द्रिय से मनुष्य को स्वाद का अनुभव होता है। इसके अधिकार क्षेत्र में खून, लार, पसीना, वीर्य, मूत्र तथा शरीर में बनने वाले समस्त रस तथा एंजाइम आदि। इस तत्व के अन्र्तगत कफ धातु आती है अर्थात् जल तत्व के अंसतुलन से कफ विकार उत्पन्न होता है, जल तत्व के देवता वरूण एवं इन्द्र हैं।
अग्नि तत्व – शरीर में 4 प्रतिशत अग्नि का प्रतिनिधित्व होता है। अग्नि तत्व के स्वामी सूर्य एवं मंगल ग्रह हैं। अग्नि की प्रकृति – ऊष्मा, तथा इसका कारक तत्व दृश्य है, आँख नामक ज्ञानेन्द्रिय से मनुष्य को दृश्य का अनुभव होता है। इसका अधिकार क्षेत्र ऊर्जा, ऊष्मा, शक्ति, ताप है जो हमारे शरीर में गर्माहट यानी ताप का संतुलन रखती है। अग्नि तत्व ही भोजन को पचाकर शरीर को स्वस्थ्य रखता है अग्नि तत्व में अंसतुलन होने की स्थिति में पित्त दोष का जन्म होता है जिससे शरीर में बीमारी उत्पन्न होती है। अग्नि के देवता सूर्य माने गये है।
वायु तत्व – शरीर में 6 प्रतिशत वायु का प्रतिनिधित्व होता है वायु तत्व के स्वामी शनि ग्रह है। इसकी प्रकृति गति तथा इसका कारक तत्व स्पर्श होता है, त्वचा नामक ज्ञानेन्द्रिय से मनुष्य को स्पर्श का अनुभव होता है इसके अधिकार क्षेत्र में स्वास क्रिया आती है मनुष्य का संवेदनशील नाड़ी तंत्र और मनुष्य की चेतना स्वास प्रक्रिया से जुड़ी है। वायु के देवता भगवान विष्णु माने गये हैं।
आकाश तत्व – शरीर में 6 प्रतिशत आकाश का प्रतिनिधित्व होता है, आकाश तत्व के स्वामी ग्रह गुरू हैं। इसकी प्रकृति-मिश्रित, इसका कारक तत्व शब्द होता है, कान नामक ज्ञानेन्द्रिय से श्रवण का अनुभव होता है इसका मुख्य कार्य है शरीर में आवश्यक संतुलन बनाये रखना। इसके अधिकार क्षेत्र में आशा एवं उत्साह तथा वात एवं कफ इसकी धातु है। आकाश तत्व भौतिक रूप से मन का प्रतीक है, जैसे आकाश अनंत है वैसे ही मन की सीमा भी अनंत है जैसे आकाश में कभी बादल, कभी धूप तथा कभी साफ रहते है उसी प्रकार मनुष्य का मन भी कभी खुश, कभी उदास तथा कभी शांत रहता है तथा जिस प्रकार आकाश अनंत ऊर्जाओं से भरा होता है वैसे ही मनुष्य का मन भी अपार ऊर्जावान होता है, आकाशीय गतिविधियों में गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश ऊष्मा, चुम्बकीय क्षेत्र एवं प्रभाव तरंगों में परिवर्तन होता है इस परिवर्तन का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है। आकाश के देवता भगवान शिव हैं।
उक्त बातों के पश्चात् यह मान लेना ही श्रेयस्कर होगा कि इन् शक्तिशाली पंचमहाभूतों से निर्मित हमारा शरीर भी अपार शक्तिशाल एवं उर्जावान है। इन पंचमहाभूतों के असंतुलन से मानव शरी में विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्म होता है इसलिए पंचमहाभूत की शुद्धियां एवं उनमें सदैव संतुलन बनाये रखने हेतु प्रयत्नरत रहकर शरीर को निरोगी रखा जा सकता है।
पंचमहाभूत की अशुद्धियों को शुद्ध करने का बहुत सरल उपाय यह है कि मन को संतुलित, स्थिर एव स्वच्छ रखने से आकाश तत्व (महाभूत) की शुद्धि स्वतः हो जाती है, इसी प्रकार जल क 12 घण्टे तांबे के बर्तन में रखकर ही उसका उपयोग पीने में क अथवा नीम या तुलसी की पत्तियों को डालकर रखे उस पान का पीने में उपयोग करें तो जल तत्व का संतुलन स्थापित होत है तथा जल तत्व (महाभूत) की शुद्धि होती है, अग्नि तत् (महाभूत) को संतुलित एवं शुद्धि करने के लिए प्रातःकाल में सूर्य स्नान करना चाहिए। तथा वायु तत्व (महाभूत) को संतुलित एवं शुद्धि करने के लिए किसी खुले स्थान, नदी के किनारे अथवा पार्क या झील के पास प्रातः काल जाकर वायु स्नान करना चाहिए। पृथ्वी तत्व (महाभूत) को शुद्धि एवं संतुलित करने के लिए मानव को शुद्ध एवं शाकाहारी भोजन का चयन करना चाहिए तथा भोजन पकाने का स्थान स्वच्छ हो तथा पकवान भी स्वच्छ मन से बनाये एवं परोसे जायें, भोजन करते समय एकाग्र भाव एवं चित्त से माँ अन्नपूर्णा का ध्यान कर भोजन ग्रहण करना चाहिए साथ ही मानव जो भी भोजन के रूप में ग्रहण करता है उन सभी में जीवात्मा होती है इसलिए जो हमें भोजन देने के लिए अपनी जीवात्मा त्याग रहे हैं उनके प्रति आभार व्यक्त करके ही भोजन प्रारम्भ करना चाहिए, ऐसा करने से भोजन आपके शरीर में अलग तरीके से काम करता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न मुद्राओं एवं योग साधनाओं से भी इन तत्वों का संतुलन संभव है।